क्या अराजकता व अशांति का वातावरण है? -सेवानि. न्यायाधीश आर के श्रीवास

“संक्षिप्त टीका:-267”

देश के माननीय सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य व अन्य न्यायाधिपतियो के निर्णय/ आदेश वर्तमान में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के मुख़्य व अन्य न्यायाधिपति ही नही मान रहे है।
देश के माननीय सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य व अन्य न्यायाधिपतियो के निर्णय/आदेश वर्तमान में माननीय मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधिपति नही मान रहे है। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय/आदेश वर्तमान में स्वयं मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधिपति नही मान रहे है।
और देश के माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधिपतियो के निर्णय/आदेश तथा माननीय मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधिपतियो के निर्णय/आदेश प्रदेश के अधिनस्थ न्यायालय के न्यायाधीश नही मान रहे है।

क्या अराजकता व अशांति का वातावरण है?

देश के मुख्य व अन्य न्यायाधिपति/प्रदेश के मुख्य व अन्य न्यायाधिपतियो को जो निर्णय व आदेश जो ए.आई.आर, एस.सी.सी, सी.आर.एल.जे., एम.पी.एच.टी, एम.पी.एल.जे., एम.पी.डब्ल्यू.एन. आई.एल.आर, तथा अन्य विधिक पत्रिकाओं को जिनमे माननीय उच्चतम व उच्च न्यायालय के निर्णय छपते है, और उनका संग्रहण अधिवक्ता व न्यायाधीशों के पुस्तकालय में किया जाता है तथा जिन पुस्तको को हम न्यायालय में नजीर के रुप में प्रस्तुत करते है, और वे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 व 215 के तहत अधीनस्थ न्यायालय पर कानून के रूप में बंधनकारी होते है, उन्हें जब कोई न्यायालय नही मानता है, तथा उनका अनुसरण न करते हुए उनकी खुली उपेक्षा, दुर्गति व उल्लंघन कर निर्णय व आदेश मनमाने रूप से पारित करता है।
इसी तरह माननीय सुप्रीम कोर्ट व मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य व अन्य न्यायाधिपतियो द्वारा पारित आदेश/निर्णय का पालन न करने पर अवमानना याचिका पेश करने पर उसकी न तो समुचित रूप से सुनवाई की जाती है, और कि भी जाती है तो जानबूझकर खुला पक्षपात ख़ारिज करने में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई भी देता है, और महसूस भी किया जा सकता है, किन्तु सामान्य जनता द्वारा अवमानना के भय के कारण नही कहा जाता है।
जैसा कि विगत दिनों मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के विद्वान प्रशासनिक न्यायाधिपति श्री संजय यादव और अन्य न्यायाधिपति द्वारा किया गया। इनके पास कहने को शब्दकोश में शब्दावली नही कि अवमानना क्यो नही होती है और याचिका खारिज क्यो की जा रही है, शाब्दिक दृष्टि से भी आदेश पारित करने में दीनहीन व असहाय हो गये।
और अपने आपको न्यायाधिपति कहते है, शर्म आती है कि जो न्यायाधिपति अवमानना याचिका खारिज करने में पुख्ता आधार भी न लिख पावे।
इस तरह अवमानना करने वालो को दंडित किया जाता है, बल्कि जो अवमानना याचिका पेश करता है याचिकाकर्ता को ही प्रताड़ित कर कॉस्ट लगाने की धमकी स्वयं देश व प्रदेश के न्यायाधिपतियो द्वारा दी जाकर कलम की नोक पर गुंडागर्दी की जाती है।
अवमानना करने वाले कौन होते है जिनसे इस देश व प्रदेश के न्यायाधिपति महोदय डरकर घर मे दुबककर बैठ जाते है यदि किसी गरीब गुरबे व अप्रभावशाली व्यक्ति के विरुद्ध अवमानना याचिका पेश की जावे या फिर स्वप्रेरणा से संज्ञान लिया जावे तो देश की न्यायपालिका के कतिपय न्यायाधिपति तुरत फुरत में शीघ्र व त्वरित विचारण/निराकरण कर ज्यादा से ज्यादा 3 माह में अवमानकर्ता की अनुपस्थिति में किया जाकर उसे जेल भेजने का आदेश जारी कर दिया जाता है, किन्तु यदि अवमान करने वाला प्रभावशाली व दिग्गज हो तो सालों साल उस पर प्रारंभिक सुनवाई तक दबंग बलशाली शक्तिशाली कहे जाने वाले विधिक रूप से नपुंसक कतिपय न्यायाधिपतियो द्वारा नही की जाती है।
ऐसे दिग्गज दबंग मुख़्य न्यायाधिपति का नाम उदाहरण के रूप में श्री दीपक मिश्रा, श्री रंजन गोगोईं जी का तो लिया ही जा सकता है, जिन्हें कागज के शेर भी कहा जा सकता है। इस तरह जब देश व प्रदेश के न्यायाधिपति अपने आदेशो का पालन ही नही करवा सकते है तो उनके द्वारा पारित निर्णयों/आदेशो को पुस्तकालय में किताबो में संजोए रखने का वर्तमान में क्या औचित्य है।
इतना खर्चा करने की किताबो पर क्या आवश्यकता है। उपरोक्त वर्णित उक्त समस्त किताबो जिसमे निर्णयों/आदेशों का विधिवत समेकन किया जाता है को संग्रहित कर होली बनाकर जला देना चाहिए। क्योकि वर्तमान में कतिपय न्यायालय कानून से नही बल्कि मनमानी कर स्वयं भू प्रक्रिया के तहत कार्य कर रहे है।।
इस व्यवस्था के दोषी अधिनस्थ न्यायालय के न्यायाधीश नहो बल्कि माननीय उच्चतम व प्रदेश के उच्च न्यायालय के न्यायाधिपति ही है क्योंकि वे अपने अधीनस्थों पर ठीक तरह से नियंत्रण न करते हुए अवैध, अनियमित, पक्षपात भेदभाव पूर्वक गलत कार्य करने वालो व भ्रष्टाचार करने वालो तथा अवमानना करने वालो को साशय भय के कारण प्रश्रय व सरंक्षण दे रहे है। अर्थात देश व प्रदेश के न्यायाधिपति ही न्यायपालिका का अस्तित्व मिटाने पर उतारू है। यह में मात्र संभावनाओं के आधार पर नही बल्कि पुख्ता प्रमाण के आधार पर कह रहा हु।
मुझे समझ नही आता कि क्या वर्तमान में देश व प्रदेश के न्यायाधिपतियो का कार्य केवल निर्णय/आदेश तक सीमित रह गया है, क्या उन निर्णय/आदेश को निष्पादित करना उनका कार्य नही है, अर्थात किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति हो रही है।

जय भारत।
राजेन्द्र कुमार श्रीवास
जबरन सेवानिवृत्त अपर जिला न्यायाधीश, अधिवक्ता 40 जावरा रोड़ रतलाम
9425485815

जज तीन प्रकार के होते हैं मितरों !!

जज तीन प्रकार के होते हैं मितरों.

ट्रांसफर वाले – मुरलीधर की तरह

राज्य सभा और गवर्नर हाउस वाले

और जब दोनों से बात न बने तो परलोक वाले – जज लोया की तरह.

एक दूसरे की खुजाने से ही खुजली दूर होती हैं भाईयो बहनों। पहले हमें खुजली थी तो इन्होंने खुजा दिया था अब इनको खारिश हुई है तो हम सहयोग कर रहे हैं…

जस्टिस लोया बनाम बिकाऊ गोगोई

लायल बनों नहीं तो लोया बना दिए जाओगे…

तो तानाशाह का लायल बनना स्वीकार किया गोगोई ने..

कुछ पन्ने इतिहास के मेरे मुल्क

के सीने में शमशीर हो गये।

जो लड़े जो मरे,वो शहीद हो गये।

जो डरे जो झुके,वो वजीर हो गये।

भारत के पूर्व चीफ जस्टिस द्वारा राज्यसभा के नॉमिनेशन ने निश्चित रूप से ज्यूडिशरी की आज़ादी में आम आदमी के विश्वास को हिला दिया है, जो कि भारतीय संविधान की बुनियादी स्ट्रक्चर में से एक है. मुझे यह देखकर ताज्जुब हुआ कि पूर्व CJI ने ज्यूडिशरी की स्वतंत्रता और निष्पक्षता के महान सिद्धांतों से कैसे समझौता किया.

-जस्टिस कुरियन जोसेफ (रिटायर्ड)

अंग्रेजी अखबार द इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार अवकाश प्राप्त न्यायाधीश जस्टिस लोकुर ने कहा,
‘जो सम्मान जस्टिस गोगोई को अब मिला है उसके कयास पहले से ही लगाये जा रहे थे। ऐसे में उनका नामित किया जाना चौंकाने वाला नहीं है, लेकिन यह जरूर अचरज भरा है कि ये बहुत जल्दी हो गया. यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और अखंडता को फिर से परिभाषित करता है।’

इसके साथ ही उन्होंने सवाल किया कि क्या आखिरी स्तंभ भी ढह गया है?

न्यायपालिका के दुरुपयोग के मामले में भाजपा और कांग्रेस दोनों उच्च जातीय समीकरण रखती हैं!

इतिहास को जानिए और सोचिए!!!

इतिहास के कुछ उदाहरण जरूर देखने चाहिए –
1. 2 मई 1973 को केंद्रीय मंत्री एस मोहन कुमारमंगलम ने संसद में बयान दिया – “निश्चितौर पर, सरकार के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम इस दर्शन को अपनाएँ कि क्या अगला व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट का नेतृत्व करने लायक है या नहीं।”
2. उपर्युक्त बयान इसलिए दिया गया क्योंकि तीन जजों की वरिष्ठता को नज़रअंदाज़ कर इंदिरा सरकार ने ए एन रे को मुख्य न्यायाधीश बना दिया, जिसने इमर्जेंसी के दौरान जीने के अधिकार(मौलिक अधिकार) की हत्या कर दी। इस केस के फ़ैसले के दौरान विरोध में सिर्फ़ एक जज एच आर खन्ना थे।
3. जस्टिस एच आर खन्ना की बारी चीफ़ जस्टिस बनने की आई तो उनकी जगह इंदिरा सरकार ने एम एच बेग को सीजेआई बना दिया। ये जज भी जबलपुर केस की सुनवाई वाले बेंच में थे।
4. 1978 में टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने एडीएम जबलपुर केस की आलोचना की तो बेग साहब ने स्वत: संज्ञान लेते हुए तब के संपादक श्याम लाल के ख़िलाफ़ अवमानना का मामला चला दिया।
5. जब इस मामले की सुनवाई हुई तो दो जजों ने केस को अवमानना लायक मानने से इनकार कर दिया।

6. फ़रवरी 1978 में एम एच बेग रिटायर हुए और उन्हें कांग्रेस के न्यूज़ पेपर नेशनल हेराल्ड के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में जगह दी गई।

7. 1988 में राजीव गांधी सरकार ने बेग साहब को पद्म विभूषण से अलंकृत किया

8. अब एक शख़्स बहारुल इस्लाम के बारे में जानिए। ये 1952 में कांग्रेस में शामिल हुए और 1972 तक विभिन्न पार्टी पदों पर रहे। 1962 में कांग्रेस ने इस्लाम साहब को राज्यसभा भेजा। 1967 के असम विधानसभा चुनाव में इन्हें उम्मीदवार बनाया गया लेकिन ये जीत नहीं पाए। 1968 में इन्हें फिर राज्यसभा का टिकट मिला। 1972 में बहारुल इस्लाम ने राज्यसभा से इस्तीफ़ा दिया और सीधे इन्हें गोवाहाटी हाईकोर्ट का जज बना दिया गया। 1 मार्च 1980 को जनाब रिटायर हो गए।

9. 1980 में सत्ता में लौटते इंदिरा सरकार ने रिटायरमेंट के 9 महीने बाद बहारुल इस्लाम को सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त करवा दिया। साहब ने ही पहली बार धोखाधड़ी केस में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र को क्लीनचिट दी।

10. बहारुल साहब ने रिटायरमेंट से 6 महीने पहले इस्तीफ़ा दिया और सीधे बारापेट लोकसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर पर्चा भर दिया।

11. 1984 के सिख दंगों की जाँच के लिए राजीव सरकार ने रंगनाथ मिश्रा के नेतृत्व में आयोग बनाया। इस आयोग को दंगों में एक भी कांग्रेसी नेताओं का रोल नज़र नहीं आया। इस काम का इनाम देते हुए कांग्रेस सरकार ने रंगनाथ मिश्रा को 1993 में नेशनल ह्यूमन राइट कमीशन का पहला अध्यक्ष बनाया। 1998 में रंगनाथ मिश्रा कांग्रेस टिकट पर राज्यसभा गए। 2004 में कांग्रेस ने अल्पसंख्यक और एससी/एसटी कमीशन का चेयरमैन बनाया।
ऐसे उदाहरण तमाम हैं।

और अब मोदी सरकार भी उसी रास्ते पर खुलेआम चल रही है

रंजन गोगोई के माध्यम से!!

कोई अंतर नहीं है भाजपा और कांग्रेस में दोनों ही उच्च स्तरीय जातिवादी पार्टी हैं।।